कोई भी कार्य असम्भव नहीं - स्वामी विवेकानंद जी।



कोई भी कार्य असम्भव नहीं


स्वामी विवेकानन्द ने अपने विषय के गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन और परिश्रम से जीवन का यह तथ्य खोज निकाला था कि कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। पराधीनता की कितनी भी मजबूत बेडियाँ हों, उन्हें तोड़ना असम्भव नहीं। किसी भी व्यक्ति के बारे में कोई भी धारणा हो, हम अपने कर्तव्य से अपनी छवि को बदल सकते हैं। कार्य नियोजन व समयबद्धता व्यक्ति के जीवन में हो तो वह कुछ भी अर्जित कर सकता है, क्योंकि मनुष्य के लिए दुनिया की कोई भी वस्तु अपर्याप्त नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने मनुष्य देह को सर्वोत्कृष्ट बताते हुए कहा- था: "सब प्रकार के शरीरों में मानव देह ही श्रेष्ठतम है, मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव " है। मनुष्य सब प्रकार के निकृष्ट प्राणियों से, यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर जीव और कोई नहीं है। "

यूरोप के लोगों की भारत के प्रति हीनता की भावना उन्होंने अपने प्रवचन के पहले वाक्य में ही दूर कर दी जब उन्होंने सगर्व अपने प्रवचन में हजारों की भीड़ को लेडीज एंड जेन्टलमैन की बजाय 'भाईयों और बहनो' कहकर सम्बोधित किया। सभा के अन्तिम वक्ता होने के बावजूद उनका भाषण लोगों ने पसन्द किया। उन्होंने कहा कि मैं सभी धर्मों की जननी सनातन धर्म की ओर से आप सभी का धन्यवाद करता हूँ और कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी आपको धन्यवाद देता हूँ।

उन्होंने उस मंच पर सनातन धर्म के बारे में ओछी बात कहने वालों के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित किया और यह कहा कि "हम भारत के लोग सहिष्णुता में यकीन करते हैं। हम ऐसे धर्म के अनुयायी हैं, जो संसार को सार्वभौमिक स्वीकृति और सदाशयता का पाठ पढ़ाता है। सनातन धर्म ने इसी की शिक्षा दी है कि लोग न केवल अपने धर्म के प्रति सहिष्णुता बरतें, बल्कि सभी धर्मों को समान मानें और उसे स्वीकार करें।" उन्होंने इस बात को भी दोहराया : "ज्ञात मानव इतिहास में भारत ने कभी भी किसी देश पर हमला नहीं किया, किसी की भूमि को कब्जे में लेने की कोशिश नहीं की और सभी को अपने यहाँ प्रश्रय दिया। उन्होंने एक श्लोक से यह बात कही कि जिस तरह सभी नदियाँ अलग- अलग स्रोतों से निकलकर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार भगवान की शरण में सभी धर्मों के लोग पहुँचते हैं, उनके रास्ते भले ही टेढ़े-मेढ़े हों, लेकिन उनका लक्ष्य एक ही है।

उपनिषद्युगीन सुदूर अतीत में, हमने इस संसार को एक चुनौती दी थी कि 'न तो सन्तति द्वारा और न सम्पत्ति द्वारा, वरन केवल त्याग द्वारा ही अमृतत्व की उपलब्धि होती है।' एक के बाद दूसरी जाति ने इस चुनौती को स्वीकार किया और अपनी शक्ति भर संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया। वे सब की सब अतीत में तो असफल रही हैं-पुरानी जातियाँ तो शक्ति और स्वर्ण की लोलुपता से उद्भूत पापाचार और दैन्य के बोझ से दबकर पिस-मिट गईं और नई जातियाँ गर्त में गिरने को डगमगा रही हैं। इस प्रश्न का तो हल करने के लिए अभी शेष ही है कि शान्ति की जय होगी या युद्ध की, सहिष्णुता की विजय होगी या अहिष्णुता की, शुभ की विजय होगी या अशुभ की, शारीरिक शक्ति की विजय होगी या बुद्धि की, सांसारिकता की विजय होगी या आध्यात्मिकता की। हमने तो युगों पहले इस प्रश्न का अपना हल ढूँढ़ लिया था। हमारा समाधान है असांसारिकता का त्याग।"

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